" जब भी चाहे किये अंधेरों में उजाले उसने..
कर दिया घर मेरा शोलों क हवाले उसने ..
उस पे खुल जाती मेरे शुक की सिद्दत ..
देखे होते जो मेरे पांव के छाले उसने ..
...
जब उसको मेरी दोस्ती पे भरोसा ही न था ..
क्यों दिए मेरी वफाओं के हवाले उसने ....
जिसका हर ऐब जमाने से छुपाया मैने ..
मेरे किस्से सरे-बाज़ार उछाले उसने ..
इक मेरा ही हाथ न थमा उसने ..
वरना गिरते हुए कितने ही संभाले उसने ......."
" प्रशांत अवस्थी "
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