कट ही गई जुदाई भी, कब ये हुआ के मर गए ...
उसके भी दिन गुज़र गए, मेरे भी दिन गुज़र गए ...
उसके लिए चले थे हम, उसके लिए ठहर गए ...
उसने कहा तो जी उठे, उसने कहा तो मर गए ...
होता रहा मुकाबला, पानी का और प्यास का ...
सेहरा उमड़ उमड़ पड़े, दरया बिफर बिफर गए ...
वोह भी गुबार-ए-ख्वाब था, हम भी गुबार-ए-ख्वाब थे ...
वोह भी कहीं बिखर गया, हम भी कहीं बिखर गए ...
राह में मिले थे हम कभी, अब राहें ही नसीब बन गयीं ...
वो भी न अपने घर गया, हम भी न अपने घर गए ...
आज इंतज़ार के इस वक़्त को, ना जाने क्या हो गया ...
ऐसे लगा के हश्र तक, सारे ही पल ठहर गए ...
बारिश-ए-वसल वो हुई, सारा ग़ुबार धुल गया ...
वो भी निखर निखर गया, हम भी निखर निखर गए...
इश्क के जहां का, ये दस्तूर भी अज़ीब है ...
तैरे तो ग़र्क़ हो गए, डूबे तो पार उतर गए ...
...................................................प्रशांत अवस्थी
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